Saturday, September 26, 2009

बचपन

These lines are dedicated to Computer Science & Engg. 2003 - 2007 batch of M. P. C. C. E. T. - Bhilai, Chhattisgarh. I enjoyed my childhood second time since the day I met them.





वर्षा रितु की रिमझिम से,

मानव मन यूँ हर्षाता है।

कुछ पल को घडियां रुक जायें,

कहकर लहराता जाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।




गिरकर उठना उठकर गिरना,

पतझड़ के पत्तों सा उड़ना।

सागर के पानी में जैसे,

लहरों का झुंड समाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





अपने में कभी तो मुस्काना,

कभी रूठ के चुप सा हो जाना।

अपने मित्रों की बातो पर,

कोई मंद मंद मुस्काता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





बिन बात कभी गुस्सा करना,

और कभी शिकायत कर जाना।

जैसे रातों के अंधेरे में,

जुगनू जलकर खो जाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





कम नम्बर पाकर चुप होना,

वैरी गुड पा खुश हो जाना।

ममता की छांव में आने पर,

जैसे बचपन मुस्काता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





बातें करना करते जाना,

पकड़े जाने पर मुस्काना।

कोई ख़ुद को निर्दोष कहे,

तो कोई बहाने बनाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





नज़रें मिलने पर हंस देना,

कुछ ना आने पर शर्माना।

ऐसी उन्मुक्त क्रीडा में तो,

सबका बचपन हर्षाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





देर से कक्षा में आना,

और जोर से कुर्सी खिसकाना।

ऐसी चंचलता देख के तो,

हर एक बच्चा मुस्काता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





कुछ कहते कहते डर जाना,

डरते डरते सब कह जाना।

इस बाल सुलभ चंचलता में,

भोला बचपन इठलाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





बड़ी बड़ी बातें कहना,

कहकर ख़ुद ही चुप हो जाना।

क्या कहूँ की ऐसी समझ से तो,

मन मेरा चकित हो जाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





सामने बैठ गड़बड़ करना,

मुड़कर बातें करते जाना।

मेरे शब्दों को दोहराकर,

कोई सबका मन हर्षाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।





तैयारी मेरी पूरी नही अभी,

कहकर ये समय बढ़वाता है।

कोई तो झुकाकर सर अपना,

कक्षा में टिफिन भी खाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।



कोई तो चुप ही रहता है,

कोई तो कहता जाता है।

कोई सागर सी गहराई से,

मन मेरा चकित कर जाता है।

जब भी मैं इनसे मिलता हूँ,

मुझको बचपन याद आता है।



तुमको कैसे बतलाऊं मुझे,

प्रोटोकॉल बुलाया जाता है।

इनकी कक्षा में जाकर कशिश,

ख़ुद ही बच्चा बन जाता है।

इन प्यारे बच्चों से मिल,

मुझको बचपन याद आता है।

Saturday, September 12, 2009

मेरी परछाई

On the marvelous eve of IT block function (where we were bidding farewell to IT 2001-05 batch of MPCCET – Bhilai), I dedicated these lines titled "मेरी परछाई" to three batches of Information Technology (2001-05, 2002-06 & 2003-07) of MPCCET – Bhilai.



सावन का पहला बादल,

या लहराता आँचल हो।

फूलों की भीनी खुशबु,

या आंखों का काजल हो।



झील में खिलता कमल,

या सागर की लहर हो तुम।

उगते सूरज की कोई किरण ,

या अंतहीन कोई सफर हो तुम।



बहते निरझर की झर झर ,

या नदीयों का गान हो तुम।

खेतों की हरियाली,

या निश्छल मुस्कान हो तुम।



आकाश के हो तारे,

या धरती की शान हो तुम।

आंखों में अपनापन है,

फ़िर भी लगते अनजान हो तुम।



ओंस की पहली बूंद,

या बारीश की रिमझिम हो।

ठंड की पहली बर्फ,

या गर्मी की शाम हो तुम।



जीवन का आगाज़ कभी,

कभी लगते अंजाम हो तुम।

कभी तो उगता सूरज,

कभी तो ढलती शाम हो तुम।


मनमोहन की मुरली,

या तानसेन की तान हो तुम।

धीमी होती सी धड़कन,

या जीवन का आहवान हो तुम।



कभी हलचल मेरे मन की,

कभी मेरी तन्हाई हो।

अब जा के पहचाना है,

तुम मेरी ही परछाई हो।