Friday, March 27, 2009

खुशियाँ

ठंडी मंद पवन के संग,

मन मेरा बहता जाता था;

ऐसे में आंखों के आगे,

दृश्य कोई लहराता था;




रूकती चलती गाड़ी के संग,

सब रुकता चलता जाता था;

भूत - भविष्य की बातों में,

मैं वर्तमान बीसराता था;




गाड़ी के धीरे होने पर,

नजरें नज़रों से टकराई;

क्या करता मैं तो हतप्रभ था,

शायद वो भी न समझ पाई;




वो चेहरा मन में संजोने को,

मैं शायद थोड़ा आतुर था;

आँखें साथ न देती थी,

मन होता जाता शायर था;




छुपकर धीरे से देख उसे,

पलभर को खुश हो जाता था;

वो क्या सोचेगी इस डर से,

अपने मन को समझाता था;




उसके सर का वो दुपट्टा,

चेहरे से कुछ हट जाता था;

सांवल चेहरे की झलक लिए,

जब हवा का झौंका आता था;




लो आ ही गई आख़िर वो घड़ी,

जब नज़रें फ़िर से टकराई;

मैं थोड़ा सा सकुचाया,

शायद वो भी थी सकुचाई;




थोडी सी हिम्मत करके तब,

मैंने उसका चेहरा देखा;

अपनी आंखों में बहता सा,

जैसे एक ख्वाब सुनहरा देखा;




मन्दिर की मूरत थी वो,

या मस्जिद की दुआ कोई;

मेरे जीवन के अंधेरे में,

मानो जैसे थी सुबह हुई;




ऑंखें उजला आकाश,

भौंहें सागर का किनारा थी;

परमब्रम्ह की ये रचना,

उसके कौशल का नज़ारा थी;




ऐसे थे उसके नैन नक्श,

शब्दों में जो न ढल पायें;

निर्मल सी उसकी एक झलक,

मन में सागर सी लहराए;




अलंकार की कोई छवि,

शायद उसको ना भाती थी;

उसके मुख मंडल की आभा,

ख़ुद अलंकार बन जाती थी;




गुरूद्वारे का तेज था वो,

या गिरजा घर की शान्ति थी;

शायद वो कोई परी ही थी,

या मेरे मन की भ्रान्ति थी;




उसके हाथों से हाथ मेरा,

अनजाने में था टकराया;

या मेरी पलकें बंद हुई,

जब मैंने ये धोखा खाया;




लोकलाज का भय था वो,

या किस्मत का लेखा था;

उसने मझको देखा ही नही,

या देख किया अनदेखा था;




समझ ये मेरी मनोदशा,

शायद वो मुस्काई थी;

गाड़ी भी अब रुकने को थी,

क्या उसकी मंजिल आई थी?




चलती जाती वो दूर कहीं,

किरणे मुझको भरमाती थी;

लहराता था आँचल उसका,

या वो मुड़कर मुस्काती थी;




किरणे थी अब कुछ तेज हुई,

आँखें जो ना सह पाती थी;

सपनो में खोया था शायद,

जब किरणे मुझे जगाती थी;



उसकी भक्ति में लीन था मैं,

जब शंखनाद सा हुआ कहीं;

निर्मल सी झलक फ़िर पाने को,

मैं तकता उसको खड़ा वहीँ;




शंखनाद अब तीव्र हुआ,

कान जो ना सह पाते थे;

मैं भरकस कोशिश करता था,

पर नेत्र मेरे खुल जाते थे;




शंख नही एक घड़ी थी वो,

जो मुझको सुबह जगाती थी;

मेरे सपनों की दुनिया को,

मुझसे छीन ले जाती थी;




जाने क्या सोच के मन ही मन,

मैं मंद - मंद मुस्काता था;

उसकी भक्ति में डूबा सा,

मन उसके ही गुन गता था;




शायद अब मैं समझ गया,

उस सपने की परिभाषा को;

अपने मन की उस हलचल को,

उसकी मुस्कान की भाषा को;




गाड़ी का सफर जीवन मेरा,

जिसमे मैं बहता जाता था;

लड़की जीवन की खुशियाँ थी,

जिससे मैं शर्माता था;




शर्म राह की मुस्किल थी,

जिनसे शायद लड़ना था मुझे;

उसकी मंजिल थी समयगति ,

जिससे आगे बढ़ना था मुझे;




मैं हर दिन उसको सोचता हूँ,

उसकी वो आँखें खोजता हूँ;

सपनो में जो वो बुझाती है,

अद्भुत वो पहेली बुझता हूँ;




अब जब नज़रें टकराती हैं,

तब ढेरों सपने पलते हैं;

और शंखनाद जब होता है,

हम एक राह पर चलते हैं;




किरणे अब भी उसी समय,

हर दिन मुझे जगाती हैं;

उसको जाते मैं देखता हूँ,

और वो मुड़कर मुस्काती है;




जीवन, मुश्किल और समयगति,

इनमे कुछ ऐसे ढलना है;

स्वप्न हो या जीवन हो मेरा,

खुशियों को संग ले चलना है;




स्वप्न हो या जीवन हो मेरा,

खुशियों को संग ले चलना है;