ठंडी मंद पवन के संग,
मन मेरा बहता जाता था;
ऐसे में आंखों के आगे,
दृश्य कोई लहराता था;
रूकती चलती गाड़ी के संग,
सब रुकता चलता जाता था;
भूत - भविष्य की बातों में,
मैं वर्तमान बीसराता था;
गाड़ी के धीरे होने पर,
नजरें नज़रों से टकराई;
क्या करता मैं तो हतप्रभ था,
शायद वो भी न समझ पाई;
वो चेहरा मन में संजोने को,
मैं शायद थोड़ा आतुर था;
आँखें साथ न देती थी,
मन होता जाता शायर था;
छुपकर धीरे से देख उसे,
पलभर को खुश हो जाता था;
वो क्या सोचेगी इस डर से,
अपने मन को समझाता था;
उसके सर का वो दुपट्टा,
चेहरे से कुछ हट जाता था;
सांवल चेहरे की झलक लिए,
जब हवा का झौंका आता था;
लो आ ही गई आख़िर वो घड़ी,
जब नज़रें फ़िर से टकराई;
मैं थोड़ा सा सकुचाया,
शायद वो भी थी सकुचाई;
थोडी सी हिम्मत करके तब,
मैंने उसका चेहरा देखा;
अपनी आंखों में बहता सा,
जैसे एक ख्वाब सुनहरा देखा;
मन्दिर की मूरत थी वो,
या मस्जिद की दुआ कोई;
मेरे जीवन के अंधेरे में,
मानो जैसे थी सुबह हुई;
ऑंखें उजला आकाश,
भौंहें सागर का किनारा थी;
परमब्रम्ह की ये रचना,
उसके कौशल का नज़ारा थी;
ऐसे थे उसके नैन नक्श,
शब्दों में जो न ढल पायें;
निर्मल सी उसकी एक झलक,
मन में सागर सी लहराए;
अलंकार की कोई छवि,
शायद उसको ना भाती थी;
उसके मुख मंडल की आभा,
ख़ुद अलंकार बन जाती थी;
गुरूद्वारे का तेज था वो,
या गिरजा घर की शान्ति थी;
शायद वो कोई परी ही थी,
या मेरे मन की भ्रान्ति थी;
उसके हाथों से हाथ मेरा,
अनजाने में था टकराया;
या मेरी पलकें बंद हुई,
जब मैंने ये धोखा खाया;
लोकलाज का भय था वो,
या किस्मत का लेखा था;
उसने मझको देखा ही नही,
या देख किया अनदेखा था;
समझ ये मेरी मनोदशा,
शायद वो मुस्काई थी;
गाड़ी भी अब रुकने को थी,
क्या उसकी मंजिल आई थी?
चलती जाती वो दूर कहीं,
किरणे मुझको भरमाती थी;
लहराता था आँचल उसका,
या वो मुड़कर मुस्काती थी;
किरणे थी अब कुछ तेज हुई,
आँखें जो ना सह पाती थी;
सपनो में खोया था शायद,
जब किरणे मुझे जगाती थी;
उसकी भक्ति में लीन था मैं,
जब शंखनाद सा हुआ कहीं;
निर्मल सी झलक फ़िर पाने को,
मैं तकता उसको खड़ा वहीँ;
शंखनाद अब तीव्र हुआ,
कान जो ना सह पाते थे;
मैं भरकस कोशिश करता था,
पर नेत्र मेरे खुल जाते थे;
शंख नही एक घड़ी थी वो,
जो मुझको सुबह जगाती थी;
मेरे सपनों की दुनिया को,
मुझसे छीन ले जाती थी;
जाने क्या सोच के मन ही मन,
मैं मंद - मंद मुस्काता था;
उसकी भक्ति में डूबा सा,
मन उसके ही गुन गता था;
शायद अब मैं समझ गया,
उस सपने की परिभाषा को;
अपने मन की उस हलचल को,
उसकी मुस्कान की भाषा को;
गाड़ी का सफर जीवन मेरा,
जिसमे मैं बहता जाता था;
लड़की जीवन की खुशियाँ थी,
जिससे मैं शर्माता था;
शर्म राह की मुस्किल थी,
जिनसे शायद लड़ना था मुझे;
उसकी मंजिल थी समयगति ,
जिससे आगे बढ़ना था मुझे;
मैं हर दिन उसको सोचता हूँ,
उसकी वो आँखें खोजता हूँ;
सपनो में जो वो बुझाती है,
अद्भुत वो पहेली बुझता हूँ;
अब जब नज़रें टकराती हैं,
तब ढेरों सपने पलते हैं;
और शंखनाद जब होता है,
हम एक राह पर चलते हैं;
किरणे अब भी उसी समय,
हर दिन मुझे जगाती हैं;
उसको जाते मैं देखता हूँ,
और वो मुड़कर मुस्काती है;
जीवन, मुश्किल और समयगति,
इनमे कुछ ऐसे ढलना है;
स्वप्न हो या जीवन हो मेरा,
खुशियों को संग ले चलना है;
स्वप्न हो या जीवन हो मेरा,
खुशियों को संग ले चलना है;
Friday, March 27, 2009
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